Tuesday, November 11, 2008

एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की से पलती आग

यौवन की दहलीज़ को पाके बनती संज्ञा जलती आग .

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एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए

मिलने वाले दिल बेबस थे अगुओं से मज़बूर हुए

झुलसा नगर खाक हुए दिल रोयाँ रोयाँ छलकी आग !

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युगदृष्टा से पूछ बावरे, पल-परिणाम युगों ने भोगा

महारथी भी बाद युद्ध के शोक हीन कहाँ तक होगा

हाँ अशोक भी शोकमग्न था,बुद्धं शरणम हलकी आग !

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सुनो सियासी हथकंडे सब, जान रहे पहचान रहे

इतना मत करना धरती पे , ज़िंदा न-ईमान रहे !

अपने दिल में बस इस भय की सुनो 'सियासी-पलती आग ?

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2 comments:

!!अक्षय-मन!! said...

दिल दहलाती रचना शब्द नही हैं बहुत ही ऊँची सोच के
साथ शब्दों को एक रश्मि रूप दिया है ........
बहुत उम्दा ...........

मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आने के लिए
आप
๑۩۞۩๑वन्दना
शब्दों की๑۩۞۩๑
सब कुछ हो गया और कुछ भी नही !!
इस पर क्लिक कीजिए
आभार...अक्षय-मन

!!अक्षय-मन!! said...

दिल दहलाती रचना शब्द नही हैं बहुत ही ऊँची सोच के
साथ शब्दों को एक रश्मि रूप दिया है ........
बहुत उम्दा ...........

मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आने के लिए
आप
๑۩۞۩๑वन्दना
शब्दों की๑۩۞۩๑
सब कुछ हो गया और कुछ भी नही !!
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आभार...अक्षय-मन

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