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ग़ज़ल
ख़ुद सुलगते रहे सुलगाते रहे
ख़ुद को ख़ुद की अगन से जलाते रहे ।
प्यार में डूब कर न हुए एक के
प्यार उनका हो पावन मनाते रहे ।
सच से जब भी हुआ आमना-सामना
बगलें झांका किए मुंह चुराते रहे ।
जिस जहाँ ने दिया नाम शोहरत हमें
बदुआऐँ उसे ही सुनाते रहे ।
हम हमीं में जिए तो जिए क्या जिए
रेवडी ख़ुद ही ख़ुद को खिलाते रहे ॥
{ये ग़ज़ल है या नहीं मुझे नही मालूम अत:इसे पद्य का दर्जा ही दे दीजिए यही ग़ज़ल का अनुशासन न हो इसमें तो }
2 comments:
हमने तो इसे गज़ल मान कर ही पढा है और क्या खूब गज़ल है ।
ASHA DEDI
SAADAR PRANAAM
"THANK'S"
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