Tuesday, November 13, 2007

आत्महत्या क्यों न ......?

"मैं आत्म हत्या क्यों न करलूं ? आईये, हम इस सोच की पड़ताल करें कि क्यों आता है ये विचार मन में....? आम जिन्दगी का यह एक सहज मुद्दा है। खुशी,प्रेम,क्रोध,घृणा की तरह पलायन वादी भाव भी मन के अन्दर सोया रहता है। इस भाव के साथ लिपटी होती है एक सोच आत्महत्या की जो पल भर में घटना बन जाती है, मनोविज्ञानियों का नज़रिया बेशक मेरी समझ से क़रीब ही होगा । गहरे अवसाद से सराबोर होते ही जीवन में वो सोच जन्म ले ही लेती है । इस पड़ताल में मैं सबसे पहले खुद को पेश करने कि इजाज़त मांगता हूँ:- "बचपन में एक बार मुझे मेरी गायों के रेल में कट जाने से इतनी हताशा हुयी थी कि मैनें सोचा कि अब दुनियाँ में सब कुछ ख़त्म सा हों गया वो सीधी साधी कत्थई गाय जिसकी तीन पीड़ी हमारे परिवार की सदस्य थीं ,जी हाँ वही जिसके पेट से बछड़ा पूरा का पूरा दुनियाँ मी कुछ पल के लिए आया और गया" की मौत मेरे जीवन की सर्वोच्च पराजय लगी और मुझे जीवन में कोई सार सूझ न रहा था , तब ख्याल आया कि मैं क्यों जिंदा हूँ । दूसरे ही पल जीवन में कुछ सुनहरी किरणें दिखाई दीं । पलायनी सोच को विराम लग गया। *********************************************************************************** ये सोच हर जीवन के साथ सुप्तरूप से रहती है।इसे हवा न मिले इसके लिए ज़रूर है ....आत्म-चिंतन को आध्यात्मिक आधार दिया जाये।अध्यात्म नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त या नगण्य कर देता है। इसका उदाहरण देखिये :- "प्रेम में असफल सुशील देर तक रेल स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार कर रहा था बेमन से इलाहाबाद का टिकट भी ले लिया सोच भी साथ थी आत्म हत्या की किन्तु अध्यात्म आधारित वैचारिक धरातल होने के कारण सुशील ने प्रयाग की गाड़ी पकड़ी कुछ दिन बाद लौट भी आया और अपने व्यक्तित्व को वैचारिक निखार देकर जब मुझसे मिला तो सहज ही कहां था उसने-"भैया,जीवन तो अब शुरू हुआ है" "कैसे....?" "मैं असफलता से डिप्रेशन में आ गया था सोच आत्म हत्या की थी लेकिन जैसे ही मैंने सोचा कि मुझे ईश्वर ने जिस काम के लिए भेजा है वो केवल नारी से प्रेम कर जीवन सहज जीना नही है मुझे कुछ और करना है " सुशील अब सफल अधिकारी है उसके साथ वही जीवन साथी है जिसने उसे नकार दिया था। ********************************************************************************* समय की रफ़्तार ने उसे समझाया तो था किन्तु समय के संदेशे को वो बांच नहीं पाया । सुशील पत्नी , सहज जीवन,ऊँचे दर्जे की सफलता थी उसके साथ। वो था अपनी मुश्किलों से बेखबर । समय धीरे-२ उसे सचाई के पास ले ही आया पत्नी के चरित्र का उदघाटन हुआ , उसकी सहचरी पत्नी उसकी नहीं थी। हतास वो सीधे मौत की राह चल पडा। किन्तु समझ इतनी ज़रूर दिखाई चलो पत्नी से बात की जाये किसी साजिश की शिकार तो नहीं थी वो। शक सही निकला कालेज के समय की भूल का परिणाम भोग रही जान्हवी फ़ूट पड़ी , याद दिलाये वो पल जब उसने बतानी चाही थी मज़बूरी किन्तु हवा के घोडे पर सवार था सुन न सका था , भूल के एहसास ने उसे मज़बूत बना ही दिया । पत्नी की बेचारगी का संबल बना वो . नहीं तो शायद दो ज़िंदगियाँ ............... ********************************************************************************** मेरे ख़याल से जितनी तेज़ी और आवेग से विध्वंसक-भाव मष्तिष्क में आतें हैं उतनी तेज होती है रक्षात्मक-भाव जो एक कवच सा बना देता है यह सब इतनी तेज़ी से होता है कि समझ पाना कठिन होता है । शरीर की रक्त वाहनियों में तीव्र संचार मष्तिष्क को विचलित कर देता है । हम सकारात्मक विचारों को बेजा मान बैठतें है। और लगा देते हैं छलाँग कुएँ/रेल की पटरी के आगे ........... " आप क्या सोचतें हैं ......मुझे बताइये ज़रूर ...... वक़्त निकालकर !" साकेत आपका लिखा हुआ पढ़ कर लगता है कि आपने जीवन को काफी करीब से देखा है मैं आपके मत से पूरी तरह सहमत हूँ मैं एक तथ्य और जोड़ना चाहूँगा इस संदर्भ में....मनुष्य को जीवन के पीछे चलना चाहिए, जीव के पीछे नहीं जीव के पीछे दौडने वाला बड़े बड़े ऐश्वर्य, राष्ट्र चमत्कार एवं अन्य भौतिकवादी वस्तुओं से प्रभावित होकर जीवन से हाथ धो बैठता है। जीवन के पीछे चलने वाला कभी उसके रहस्यों से अनभिज्ञ नहीं होता। भाई साकेत की बात पर मेरी टिप्पणी "जी,हाँ सत्य है, हमारे देश में ही नहीं समूचे विश्व में यही स्थिति है......अध्यात्म के बगैर का जीवन जीना बिना रीड़ का जन्तु ही तो है...?आप देखिये आम जीवन "सिद्धांत-बगैर जीते लोग,पल-पल बदलतीं निष्ठाएं,दोगला आचरण, कमज़ोर का दमन, जैसी बातों की प्रतिक्रिया है "आत्महत्या"....अगर अध्यात्मिकता का आभाव है तो हताशा के सैलाब में आत्महत्या को चुनना स्वाभाविक है....!"
और आप क्या राय देंगें विनत-प्रतीक्षारत मीनाक्षी जी भी खोज लाती हैं ये :-"प्रेम ही सत्य है": मृत्यु का स्वागत करता 46 साल का प्रोफेसर(Dying Professor's Last Lecture)

5 comments:

समयचक्र said...

आध्यात्मिक सोच मनुष्य को नई दिशा ओर उर्जा प्रदान करती है ओर नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर सकारात्मक कार्य करने को प्रेरित करती है .इसी बेहतर सोच के कारण सुशील जी आत्महत्या करने से बच गये. बढ़िया प्रस्तुति सराहनीय

परमजीत सिहँ बाली said...

आप ने बहुत ही प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किए हैं ..निश्चय ही इस से दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी।बधाई।

बाल भवन जबलपुर said...

आपका आभारी हूँ . अपने इर्दगिर्द से वो बात लाया हूँ और लाता रहूँगा जो जीवन से र्नैराश्य अवसाद को परे रखा जा सके. आप भी संस्मरण मेल कर सकतें हैं मुझे बल मिलेगा पाठको को दिशा

बाल भवन जबलपुर said...

इश्क़ कीजे सरेआम खुलकर कीजे। भला पूजा भी छिप छिप कोई करता है।
*************
* बंदिशें लाख हों, ताले हों, लक़ीरें हों खिचीं
प्रीत की राह पे काँटों की कालीनें बिछीं !
ख़ौफ़ कितना भी हो इज़हार तो कर ही देना-
दिल के झोले को सुक़ून से भर ही लेना...!
वर्ना ख़ुद ज़िंदगी यूँ चैन से नहि जीने ही देगी
अमिय सुख का तुमको भी न पीने नहीं देगी !

पूछ मीरा से जा इश्क़ में क्या ताक़त है ?
इश्क पूजा है-इबादत है कोई तिज़ारत तो नहीं !

ये तो सज़दे में , पूजा, प्रार्थना में यही
ये वो काम जो सरे आम किया जाता है....!

हरेक मज़हब में सुबहो-शाम किया जाता है....!

यकीं नहीं तो खुसरो से पूछ लेना तुम

वो भी कहेंगे जीं हाँ खुलकर कीजे .....भला पूजा भी कोई..... छिप छिप के किया करता है..?
**गिरीश बिल्लोरे "मुकुल”

बाल भवन जबलपुर said...

परमजीत बाली
"आपका आभारी हूँ !"