मध्य-प्रदेश में विकलांगता के परिपेक्ष्य में सचिन कुमार जैन नेमीडिय फ़ार राईट में लिखे शोध परक आलेख में आलेख में प्रदेश की स्थिति एकदम स्पष्ट कर दी है उसी को आधार बना कर मैं एक आम नागरिक की हैसियत एवम स्वयं विकलांगता से प्रभावित व्यक्ति के रूप अंतरआत्मा की आवाज़ पर यह आलेख स्वर्णिम मध्य-प्रदेश की की परिकल्पना को दिशा देने के उद्येश्य से लिख रहा हूं जिसका आशय कदापि अन्यथा न लिया जावे.
विकलांगता
विकलांगता वास्तव में एक प्रक्रिया से उत्पन्न हुई स्थिति है जिसको सामाजिक धारणायें व्यापक और भयावह रूप प्रदान करती हैं। इसकी अवधारणायें समाज पर निर्भर करती है क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं से होता है। इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन अलग-अलग स्तरों पर परिभाषित करता है :-
1. अंग क्षति (Impairment) मानसिक, शारीरिक या दैहिक संरचना में किसी भी अंग का भंग, असामान्यहोना, जिसके कारण उसकी कार्यप्रक्रिया में कमी आती हो, वह अंग क्षति से जुड़ी अशक्तता होती है।
2. अशक्तता (Disability) अंग क्षति का उस स्थिति में होना जब प्रभावित व्यक्ति किसी भी काम को सामान्य प्रक्रिया में सम्पन्न न कर सके। यहां सामान्य प्रक्रिया उसे माना जाता है जिसे सामान्य व्यक्ति स्वीकार्य व्यवस्था में किसी काम को प्रक्रिया के साथ पूरा करता है।
3. असक्षमता (Handicap) यह अंग क्षति और अशक्तता के परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति के लिये उत्पन्न हुई दुखदायी स्थिति है। इसके कारण व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका और दायित्वों का निर्वहन (आयु, लिंग, आर्थिक, सामाजिक और सास्कृतिक कारकों के फलस्वरूप) कर पाने में असक्षम हो जाता है।
विकलांग व्यक्तियों को समान अवसर देने, उनके अधिकारों के संरक्षण और सहभागिता के लिये 1995 में बने अधिनियम के अनुसार जो व्यक्ति 40 फीसदी या उससे अधिक विकलांग है उसे चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा प्रमाणित किया जायेगा। इसमें दृष्टिहीनता, दृष्टिबाध्यता, श्रवण क्षमता में कमी, गति विषयन बाध्यता, है। नेशनल ट्रस्ट एक्ट, 1999 में आस्टिन, सेलेब्रल पल्सी और बहु-विकलांगता (जैसे मानसिक रोग के साथ अंधत्व) को भी इसमें शामिल कर लिया गया।
पोर्टल पर प्रकाशित आलेख की इस परिभाषा से सहमत हूं चिकित्सकीय परिभाषा भी इसी के इर्द-गिर्द है.श्री जैन के आलेख में मध्य-प्रदेश की स्थिति के सम्बंध में आंकड़े देखिये :-
मध्यप्रदेश की स्थिति
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा कराये गये विशेश सर्वेक्षण से समाज में विकलांगता के शिकार व्यक्तियों की स्थिति का एक व्यापक चित्र उभरकर आता है। मध्यप्रदेश में कुल 1131405 व्यक्ति किसी न किसी किस्म की विकलांगता के शिकार हैं। इसका मतलब यह है कि ये लोग सरकार द्वारा तय विकलांगता की परिभाषा के अन्तर्गत आते हैं। प्रदेश की इस जनसंख्या का कुछ अलग-अलग बिन्दुओं के आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है।
- • प्रदेश में 44 फीसदी विकलांग व्यक्ति यानि 412404 व्यक्ति बेरोजगार हैं।
- • 287052 व्यक्ति दैनिक रूप से आय अर्जित करके जीवन यापन करते हैं और 281670 अपना खुद का काम करते हैं।
- • 1000 रूपये प्रति माह से कम कमाने वाले व्यक्तियों की संख्या 505472 है जबकि 5000 से ज्यादा आय अर्जित करने वाले की संख्या तीन प्रतिशत के आसपास है। सरकारी क्षेत्र में केवल 15955 लोग काम करते हैं।
राज्य सरकार और केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध कार्यक्रमों में विकलांगता के संदर्भ में किये जा रहे कार्यों में अधिक पार्दर्शिता और इस वर्ग के लिये कार्य-कर रही चेतना का अभाव समग्र रूप से देखा जा रहा है इसका आशय यह नहीं है कि योजनाएं एवम कार्यक्रम नहीं हैं आशय यह कि क्रियांवयन को सवेदित रूप से देखे जाने की ज़रूरत है जिसके लिये एक "एकीकृत-सूक्ष्म-कार्ययोजना की (कार्यक्रम-क्रियांवयन हेतु )" ज़रूरत है.जिस पर राज्य-सरकार का ध्यान जाना अब महति आवश्यक है.
"सामाजिक और तंत्र का नज़रिया"
राज्य सरकार में नियुक्त होने के लिये जब मैं लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर साक्षात्कार के लिये गया तब यही सवाल बार बार किये जा रहे थे कि :- कैसे करोगे काम....? एक अत्यधिक पढ़ा-लिखा तबका जब इस तरह की दुष्चिंता से ग्रस्त है तो आप अंदाज़ा लगा सकतें हैं कि कम पढ़ी-लिखी ग्रामीण आबादी क्या सोच और कह सकती है..? इसी तरह पदोन्नत होकर जब नवपद्स्थापना स्थान पर गया तो वहां भी कुछ ऐसे सवालों से रू-ब-रू होना पड़ा. यानी सामाजिक सोच की दिशा सदा ही शारीरिक कमियों के प्रति नकारात्मक ही रही. मेरे एक अधिकारी-मित्र का कथन तो यहां तक था कि:-”कहां फ़ंस गए, बेहतर होता कि तुम किसी टीचिंग जाब में जाते..?
अपाहिजों को अच्छे लगते जो मुझसे समानता का व्यवहार करतें हैं. किंतु जो थोड़ा सा भी नकार्त्मक सोचते उनके चिंतन पर गहरी पीडा होना स्वाभाविक है. अपाहिज़ व्यक्तियों के प्रति सामाजिक धारणा को समझने के लिये उपरोक्त उदाहरण पर्याप्त हैं. यद्यपि प्रोजेक्ट इंटीग्रेटेड एजुकेशन फॉर द डिसएबल्ड एक उत्तम कोशिश है ताक़ि नज़रिया बदले समाज का ! किंतु इतना काफ़ी नहीं है. मुझे अच्छी तरह से याद है पंचायत एवम समाज कल्याण विभाग में एक श्री अग्रवाल जी हुआ करते थे जिनके दौनों हाथ के पंजे नहीं थे उनने अपने आप विकल्प की तलाश की और वे ठूंठ हाथों में रबर बैण्ड के सहारे कलम फ़ंसा कर मोतियों समान अक्षरों में लिख लिया करते थे, हमें अपनी योग्यता अक्सर पल पल सिद्ध करनी होती है जबकि सबलांग स्वयमेव सक्षम माने जाते हैं. भले ही विकलांग व्यक्ति अधिक आउट-पुट दे.
अक्सर विकलांग-व्यक्ति को अपने आप को समाज ओर व्यवस्था के समक्ष प्रतिबध्दता प्रदर्शित करने के लिये विकल्पों पर निर्भर करना होता है एक भी विकल्प की अनुउपलब्धता विकलांग-व्यक्ति को हीनता बोध कराती है. कार्य-सफ़लता पूर्वक पूर्ण करने पर भी उठते सवालों से भी भावनाएं आहत होतीं हैं. जिनका गहरा एवं निगेटिव मनोवैज्ञानिक प्रभाव पढ़्ता है और यही प्रभाव मन के आक्रोश को उकसाता है अर्थात प्रोवोग करता है. क्या समाज कुछ ऐसा सकारात्मक चिंतन कर रहा है मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई स्थिति अभी समाज की चेतना में है. या इसे बढ़ावा दिया जा रहा है. . वर्तमान समय से बेहतर था वैदिक और प्राचीन पश्चिम क्रमश:
अष्टावक्र और
फ़्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट को स्वीकारा गया
विकलांग व्यक्तियों के लिए राहत आयकर रियायत
विकलांग व्यक्तियों के लिए यात्रा रियायतें
विकलांग व्यक्तियों के अधिकार
अधिकार और रियायतें
निःशक्तता अधिनियम, 1995 के अधीन विकलांग व्यक्तियों के अधिकार ।
राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999 के अधीन विकलांग व्यक्तियों के अधिकार ।
भारतीय पुनर्वास परिषद अधिनियम, 1992 के विकलांग व्यक्तियों के अधिकार ।
मानसिक रुप से ग्रस्त विकलांग व्यक्तियों के अधिकार ।
यात्रा (विकलांग व्यक्तियों के लिए यात्रा-रियायत)
वाहन भत्ता
आयकरमेंछूट
विकलांगव्यक्तियोंके लिएनौकरियोंमेंआरक्षणऔरअन्यसुविधाएं
विकलांग व्यक्तियों के लिए वित्तीय सहायता
विकलांग व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय सरकार की स्कीम
विकलांगता के शिकार लोगों के लिये सरकारों से अपेक्षा से पेश्तर समाज को समझ दारी पूर्ण चिंतन करना ज़रूरी है. वरना इस दिवस और फ़ोटो छपाऊ समाज सेवा का मंचन तुरंत बंद कर देना चाहिये