Tuesday, September 23, 2008

आतंकवाद बनाम कबीलियाई वृत्ति

इस पोस्ट के लिखने के पूर्व मैंने यह समझने की कोशिश की है कि वास्तव में किसी धर्म में उसे लागू कराने के लिए कोई कठोर तरीके अपनाने की व्यवस्था तो नहीं है........?किंतु यह सत्य नहीं है अत: यह कह देना कि "अमुक-धर्म का आतंकवाद" ग़लत हो सकता है ! अत: आतंकवाद को परिभाषित कर उसका वर्गीकरण करने के पेश्तर हम उन वाक्यों और शब्दों को परख लें जो आतंकवाद के लिए प्रयोग में लाया जाना है. इस्लामिक आंतकवाद , को समझने के लिए हाल में पाकिस्तान के इस्लामाबाद विस्फोट ,पर गौर फ़रमाएँ तो स्पष्ट हो जाता है की आतंक वाद न तो इस्लामिक है और न ही इसे इस्लाम से जोड़ना उचित होगा । वास्तव में संकीर्ण कबीलियाई मानसिकता का परिणाम है। भारत का सिर ऊँचा करूँगा-कहने वाले आमिरखान,आल्लामा इकबाल,रफी अहमद किदवई,और न जाने कितनों को हम भुलाएं न बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे घटना क्रम को बारीकी से देखें तो स्पष्ट हो जाता है की कबीलियाई समाज व्यवस्था की पदचाप सुनाई दे रही थी जिसका पुरागमन अब हो चुका है, विश्व की के मानचित्र पर आतंक की बुनियाद रखने के लिए किसी धर्म को ग़लत ठहरा देना सरासर ग़लत है । हाँ यहाँ ये कहा जा सकता है की इस्लामिक-व्यवस्था में शिक्षा,को तरजीह ,देने,संतुलित चिंतन को स्थापित कराने में सामाजिक एवं धार्मिक नेतृत्व असफल रहा है जिससे अच्छी एवं रचनात्मकता युक्त सोच का अभाव रहा इस्लामिक-देशों की आबादी के । डैनियल पाइप्स.की वेब साईट http://hi.danielpipes.org/ पर काफी हद तक स्पस्ट आलेख लिखे जा रहे हैं जिसका अनुवाद अमिताभ त्रिपाठी कर रहें हैं । अब भारत को ही लें तो भारत में पिछले दशकों में प्रांतीयता,भाषावाद,क्षेत्र-वाद की सोच को बढावा देने की कोशिश की जा रही है इस पर आज लगाम न लगाई गयी तो तय शुदा बात है भारतीय-परिदृश्य में भी ऐसी घटनाएं आम समाचार होंगी। आतंक को रोकने किसी भी स्थिति में किसी साफ्ट सोच का सहारा लेने की कोई ज़रूरत नहीं,आतंक वाद को रोकने बिना किसी दुराग्रह के कठोरता ज़रूरी है चाहे जितनी बार भी सत्ताएं त्यागनी पड़ें , हिंसा को बल पूर्वक ही रोका जाए।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही बढिया विचार प्रेषित किए हैं। बहुत सही लिखा है। सहमत।

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